अर्श रोग (बवासीर )




मानव शरीर में असंख्य रोम छिद्र है और प्रत्येक रोम छिद्र में कीलक सदैव उत्पन्न होते रहते है शरीर के मांसल भाग में भी यह कीलक विद्यमान रहते है जब यही कीलक गुदा द्वार पर उत्पन्न होता है है तो उत्सर्जन में अवरोध पैदा होता है इसका नाम "अर्श "अर्थात बवासीर है वात,पित्त ,और कफ के कारण यह रोग होता है यह रोग कष्टसाध्य है कई बार देखा गया है इस रोग के प्रति लोग सचेत नही रहते ,लोगो की अपनी मानसिक सोच और हिचक इस कष्टदायक रोग को लाइलाज बना देती है ,और अनभिज्ञता कभी कभी जान लेवा साबित हो जाती हैं
गुदा की माप ५.५अन्गुल होती है निचे के तीन अंगुल भाग में प्रायः यह रोग होता है इनमे दो नाडीया होती है एक से अमाशय द्वारा विष्टपदार्थ बाहर आता है इसका नाम विसर्जनी नाडी है गुदा के बाहरी भाग के २ सेमी भाग में अर्श पैदा होता है जो ६.७सेमी भाग तक फ़ैल सकते है जिनमे प्रत्येक में धमनी होता है जिसमे रक्त का संचार होते रहता है मलावरोध होने पर इसमे सुजन आने लगता है यही सुजन दबाब में आकर फट कर रक्त स्त्राव का रूप ले लेता है यह रोग गुदा द्वार के बाहर ,अन्दर दोनों जगह हो सकता है यह मुख्यता दो प्रकार के होते है -
१.शुष्क अर्श -वात एवं कफ के कुपित होने पर यह रोग होता है
२.नम अर्श -रक्त एवं पित्त के कुपित होने पर यह रोग होता है
आयुर्वेद में यह तीन प्रकार का माना गया है
१.वादी :- यह वात विकार से उत्पन्न होता है इसकी आकृति बेर के समान होती है इसमें रक्त स्त्राव नही होता अपितु जलन व् चुनचुनाहट ,होती है इस रोग से पीड़ित व्यक्ति को प्रायः सिरदर्द ,छाती में जलन व् दर्द ,कभी कभी श्वास में तकलीफ हो जाता है
२.पित्त जनित अर्श :-पित्त विकार से उत्पन्न अर्श नीलवर्ण होते है इसके सामने के भाग से रक्त स्त्राव होते रहता है
इसकीआकृति लम्बी कोमल और नमी लिए होती है इससे पीड़ित रोगी को जलन शुष्कता ,अरुचि ,अपचन ,मूर्छा होने लागता है नाखुनो और त्वचा का रंग पीला हो जाता है
३:-कफ जनित अर्श :-कफ जनित अर्श मांसल पुष्ट एवं श्वेतवर्णीय होते है इसमे चिकनाहट होती है ,इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति को भारीपन थकान .श्वास -प्रश्वास में कठिनाई होती है
ज्योतिष शास्त्र में इस रोग का प्रधान कारक ग्रह मंगल एवं राहू को माना गया है मंगल रक्त कारक तथा राहू वायु कारक ग्रह है जन्मांग चक्र में सप्तम एवं अष्टम भावः से इस रोग का पता लगाया जाता है तुला और वृश्चिक राशिया इसकी नियामक है पंचम भावः उदर का स्थान है इसमे पड़ने वाली राशिः और राशि स्वामी भी इस रोग के निर्णायक होते है
उपाय :-मूंगा एवं राहू रत्न गोमेद ,सफ़ेदपुखराज धारण करने से लाभ होता है
माह में एक बार एनिमा लेवे व्याम -योग साधन को नियमित दिनचर्या में शामिल करे
उचित आहार -विहार करे गरिष्ठ भोजन का त्याग करे
मूलाधार चक्र का स्वामी शनि है अतः शनि साधना से भी इस रोग में कमी लाया जा सकता है
वेदों में इस रोग का कारण देव या पुण्य जल में विष्ठा त्यागने को माना गया है अतः इस उपक्रम का निषेध करे

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